शनिवार, 19th जुलाई, 2025

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दवा या धोखा? इलाज के नाम पर लूट का सबसे बड़ा खुलासा!

जब भी हम किसी बीमारी के चलते डॉक्टर के पास जाते हैं, तो हमारे दिमाग में सिर्फ एक ही बात होती है — कैसे भी करके ठीक हो जाएं। हम पूरी उम्मीद से डॉक्टर पर भरोसा करते हैं, उस पर्चे पर भरोसा करते हैं जिसे समझना हमारे लिए मुश्किल होता है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि उस पर्चे के पीछे की स्याही में आपकी सेहत नहीं, बल्कि किसी का मुनाफा छिपा होता है?

आज भारत में इलाज सिर्फ सेवा नहीं, एक पूरा उद्योग बन चुका है — एक ऐसा सिस्टम जहां आपकी तकलीफ को एक अवसर माना जाता है। और यह कोई काल्पनिक या फिल्मी साजिश नहीं, बल्कि हर रोज लाखों लोगों के साथ हो रही एक कड़वी सच्चाई है।

भारत: दुनिया का जेनेरिक हब, फिर भी महंगी दवाएं क्यों?

भारत को ‘दुनिया की फार्मेसी’ कहा जाता है क्योंकि यह सबसे ज़्यादा जेनेरिक दवाओं का उत्पादन करता है। जेनेरिक दवाएं सस्ती होती हैं, असरदार होती हैं और पूरी तरह से कानूनी होती हैं। यही दवाएं अमेरिका जैसे विकसित देशों में खूब इस्तेमाल होती हैं। अमेरिका में लगभग 90% दवाएं जेनेरिक होती हैं। लेकिन भारत में, जहाँ ये दवाएं बनती हैं, वहीं इनका इस्तेमाल नहीं होता।

यह विरोधाभास क्यों?

क्योंकि भारत में हेल्थ सेक्टर में मुनाफा सबसे बड़ा मकसद बन चुका है। डॉक्टर से लेकर मेडिकल स्टोर और दवा कंपनियों तक — हर किसी का हिस्सा तय है। और जेनेरिक दवाओं में कोई मोटा कमीशन नहीं होता, इसलिए इन्हें आमतौर पर नहीं लिखा जाता।

डॉक्टर की पर्ची: इलाज या कमाई का साधन?

कभी गौर किया है कि डॉक्टर की लिखावट इतनी अस्पष्ट क्यों होती है? ये कोई संयोग नहीं है। डॉक्टर की हैंडराइटिंग इतनी उलझी होती है कि एक आम मरीज उसे पढ़ ही नहीं सकता। लेकिन मेडिकल स्टोर वाला उसे एक झलक में समझ लेता है। क्यों? क्योंकि उसे पता होता है कि कौन सी दवा देनी है, कौन सी ब्रांडेड दवा है, और उस पर कितना कमीशन मिलेगा।

यहां इलाज नहीं, एक चेन चल रही है — डॉक्टर लिखता है, मेडिकल स्टोर बेचता है, कंपनी मुनाफा कमाती है। और इस पूरे खेल का खर्च आप और हम उठाते हैं।

जेनेरिक बनाम ब्रांडेड दवा: सिर्फ नाम का फर्क, कीमत का भारी असर

मान लीजिए आप बुखार से परेशान हैं और डॉक्टर आपको पैरासिटामोल लिखते हैं। अब ये दवा अगर सीधे साल्ट (Paracetamol) के नाम से ली जाए तो 1–2 रुपये की गोली पड़ सकती है। लेकिन जैसे ही इसका ब्रांड नाम ‘डोलो’ या ‘क्रोसिन’ बन जाता है, कीमत 10–15 रुपये तक पहुंच जाती है।

क्या दवा में कोई फर्क है? नहीं। फर्क सिर्फ नाम, पैकेजिंग और मार्केटिंग का है।

2018 की एक रिपोर्ट में यह तक सामने आया कि कुछ ब्रांडेड दवाओं में कंपनियां ₹1 की दवा को ₹1000 तक में बेचती हैं। अब सोचिए, जो दवा 10 में बनती है, वह आपको 100 में मिल रही है — सिर्फ इसलिए क्योंकि डॉक्टर ने उसका ब्रांड नाम लिखा।

मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव और गिफ्ट्स का काला खेल

कई बार आपने देखा होगा कि डॉक्टर के क्लिनिक में हर समय कुछ लोग आते-जाते रहते हैं — ये होते हैं मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव्स, जिन्हें आम भाषा में MR कहा जाता है। इनका काम होता है दवा कंपनियों के प्रोडक्ट्स को प्रमोट करना और डॉक्टर को किसी खास ब्रांड की दवा लिखने के लिए मनाना।

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इसके बदले डॉक्टर को महंगे गिफ्ट, विदेशी ट्रिप्स, कैश इंसेंटिव्स जैसी चीज़ें दी जाती हैं। यह रिश्वत नहीं, लेकिन उससे कम भी नहीं। यही वजह है कि डॉक्टर जेनेरिक दवा लिखने से कतराते हैं — क्योंकि वहां कुछ मिलने वाला नहीं होता।

दवा या धोखा? इलाज के नाम पर लूट का सबसे बड़ा खुलासा!

डोलो 650 का मामला: एक उदाहरण जो सब कुछ बयां करता है

कोविड काल के दौरान ‘डोलो 650’ नाम की दवा हर घर में इस्तेमाल हो रही थी। लेकिन 2022 में CBDT की एक रिपोर्ट में सामने आया कि इस दवा की निर्माता कंपनी ने डॉक्टरों को करीब ₹1000 करोड़ के गिफ्ट्स बांटे ताकि वे इस दवा को लिखें।

कंपनी ने इन आरोपों से इनकार किया, लेकिन सवाल अब भी कायम है — अगर एक ही असर वाली दवा ₹10 और ₹100 में उपलब्ध है, तो डॉक्टर किसे चुनेंगे?

इलाज की कीमत: सिर्फ पैसे नहीं, ज़िंदगियों का सवाल

भारत में हर साल लाखों लोग इलाज के खर्च के कारण गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं। एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक, 5.5 करोड़ लोग सिर्फ इलाज के खर्चे के कारण गरीब हो गए, जिनमें से 3.8 करोड़ लोगों की जमा पूंजी दवाओं पर ही खर्च हो गई।

इन आंकड़ों के पीछे दर्द छिपा है। ये उन परिवारों की कहानियां हैं जिनके बच्चों की पढ़ाई छूट गई, जिनके घर का राशन महीनों तक नहीं आया, जिनके सपने दवा की एक पर्ची में दब गए।

सरकारी योजनाएं और उनका सच

सरकार ने इस स्थिति को सुधारने के लिए ‘प्रधानमंत्री जन औषधि योजना’ शुरू की। आज देशभर में 13,000 से अधिक जन औषधि केंद्र हैं, जहां सस्ती जेनेरिक दवाएं मिलती हैं। 2022 तक इन केंद्रों पर ₹6000 करोड़ की दवाएं बिक चुकी थीं।

इसके अलावा, सरकार ने 2017 में एक नियम लागू किया कि डॉक्टरों को दवा का साल्ट लिखना अनिवार्य होगा — ब्रांड नाम नहीं। लेकिन यह सिर्फ कागज़ों तक ही सीमित रह गया।

डॉक्टरों की लॉबी और दवा कंपनियों का दबाव इतना ज्यादा है कि यह नियम लागू नहीं हो पाया। और आम जनता आज भी ब्रांडेड दवाओं के जाल में फंसी हुई है।

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जागरूकता ही समाधान है

अब सवाल उठता है कि आम आदमी क्या करे?

सबसे पहले, आपको खुद को शिक्षित करना होगा। डॉक्टर से खुलकर पूछिए कि वो कौन सी दवा लिख रहे हैं, क्या उसकी जेनेरिक वैकल्पिक दवा उपलब्ध है? डॉक्टर से साल्ट लिखने को कहिए, ब्रांड नहीं।

अगर आपके पास जन औषधि केंद्र है, तो वहां से दवाएं खरीदें। दवा को उसके नाम से नहीं, साल्ट और कंपोजीशन से पहचानें। अगर डॉक्टर मना करता है, तो दूसरा डॉक्टर खोजिए — आपको हक है सवाल पूछने का, और ये हक छीनने नहीं देना है।

सरकार को क्या करना होगा?

सरकार को सिर्फ केंद्र खोलने से ज्यादा करना होगा। क्वालिटी कंट्रोल को सख्त बनाना होगा ताकि जेनेरिक दवाओं पर भरोसा कायम हो सके। मेडिकल एजुकेशन में भी बदलाव लाना होगा ताकि नए डॉक्टर मुनाफे से नहीं, सेवा से प्रेरित हों।

इसके अलावा, जनता को शिक्षित करने के लिए जागरूकता अभियान चलाना ज़रूरी है — ताकि देश का हर नागरिक जान सके कि दवा क्या होती है, कैसे काम करती है, और कैसे उस पर हो रही लूट को रोका जा सकता है।

निष्कर्ष: जब इलाज भी इलाज मांगने लगे

आज का भारत तकनीकी और आर्थिक रूप से आगे बढ़ रहा है। लेकिन अगर हम अपने नागरिकों को शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सेवाएं नहीं दे पाए, तो विकास अधूरा है।

हमें यह समझना होगा कि बीमारी केवल शरीर की तकलीफ नहीं होती, बल्कि यह उस सिस्टम का आईना होती है जिसमें हम जी रहे हैं। और जब इलाज भी इलाज का मोहताज हो जाए, तो बदलाव ज़रूरी हो जाता है।

हमें जागरूक होना होगा, सवाल पूछना होगा, और अपने अधिकारों की रक्षा करनी होगी — क्योंकि कई बार इलाज का भी इलाज करना पड़ता है।

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